राजस्थान के बच्चों को पढ़ाया जा सकता है कि हल्दी घाटी की लड़ाई में राजपूत शासक महाराणा प्रताप ने मुगल बादशाह अकबर को मात दी थी. बाकी भारत के लिए हल्दी घाटी की लड़ाई के विजेता अकबर ही हैं.
राजस्थान यूनिवर्सिटी ने एक बीजेपी विधायक के उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है जिसमें उन्होंने कहा था कि यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रमों यह लिखा जाए कि हल्दी घाटी का युद्ध अकबर से महाराणा प्रताप हारे नहीं थे.
अभी हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप के साथ नाइंसाफ़ी की है. उन्होंने कहा था कि अकबर को द ग्रेट कहा जाता है लेकिन महाराणा प्रताप को महान क्यों नहीं कहा जाता है. राजनाथ सिंह ने कहा था कि महाराणा प्रताप राष्ट्रनायक थे.
अक़बर बाहरी आक्रांता थे?
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी कहा कि अकबर आक्रांता था और असली हीरो महाराणा प्रताप हैं. योगी ने कहा युवा जितनी जल्दी इस सच को स्वीकार कर लेंगे उतनी जल्दी देश को सारी समस्याओं से छुटकारा मिल जाएगा.
क्या हमारी सरकारें इतिहास को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़कर लिखवा रही हैं? क्या अक़बर आक्रांता थे? क्या महाराणा प्रताप अकबर से ज़्यादा महान थे? क्या हल्दी घाटी में अकबर की हार हुई थी? क्या अकबर और महाराणा प्रताप का संघर्ष हिंदुओं और मुसलमानों का संघर्ष था?
इतिहासकार हरबंस मुखिया से बात की है. हरबंस मुखिया मध्यकालीन इतिहास के ज्ञाता हैं. वह जेएनयू में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे. पढ़िए उन्हीं के शब्दों में सारे सवालों के जवाब-
जॉर्ज ऑरवेल ने अपने उपन्यास 1984 में लिखा है कि जिसका वर्तमान पर नियंत्रण होता है उसी का अतीत पर भी नियंत्रण होता है.
इसका मतलब यह हुआ कि अतीत को आप जैसा चाहें, वैसा तोड़-मरोड़ कर उल्टा-सीधा बना सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में आपको इसकी ज़रूरत पड़ती है. वो तो एक उपन्यास की बात है लेकिन हमारे में देश में यही सच होता दिख रहा है.
इतिहास से छेड़छाड़
आज की तारीख़ में इनकी ज़रूरत यही है कि वो अपने मन का इतिहास पढ़ाएं. मतलब राजस्थान में उनको ऐसी ज़रूरत थी तो कर दिया. आने वाले दिनों में देश अन्य हिस्सों में भी ऐसा देखने को मिल सकता है. इतिहास को यहां हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है.
इतिहास के तथ्यों से इन्हें कोई मतलब नहीं है. इनकी राजनीतिक ज़रूरतें झूठ से पूरी होती है तो वो झूठ को ही सच कहेंगे. ऐतिहासिक तथ्य तो यही है कि हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप हारे थे. इस हार के बाद वो अपने चेतक घोड़े के साथ निकल गए थे. हल्दी घाटी के बाद उन्होंने बड़ी मुश्किल से जीवन व्यतीत किया. उन्होंने काफ़ी मुश्किलें झेली थीं लेकिन यह सच है कि वह अकबर से हल्दी घाटी की लड़ाई हारे थे.
मैं हल्दी घाटी जा चुका हूँ. मेरा उस मैदान को देखने का मन था जिसमें इतना प्रसिद्ध युद्ध हुआ था. मैं जानना चाहता था कि कितना बड़ा मैदान है. वो छोटा सा मैदान है. मेरा ख्याल है कि तीन या चार फुटबॉल मैदान के बराबर का वह मैदान है. ज़ाहिर सी बात है कि उसमें हज़ारों और लाखों की तादाद में सिपाही नहीं आ सकते हैं.
महाराणा प्रताप कितने महान?
मतलब वहां पर बहुत बड़ी लड़ाई नहीं हुई थी. दूसरी बात यह है कि महाराणा प्रताप लगभग अकेले राजपूत शासक थे जिन्होंने अकबर के सामने समर्पण नहीं किया. इस लड़ाई का कोई विशेष ऐतिहासिक महत्व नहीं था. 16वीं, 17वीं और 18वीं सदी में इस बात का महत्व न इस तरफ़ से था, न उस तरफ़ से था.
हालांकि लोकप्रिय कल्पनाओं में महाराणा प्रताप को एक हीरो की तरह से देखा गया. और देखा जाना भी चाहिए था क्योंकि वो अकेले राजपूत थे जिन्होंने घुटने नहीं टेके और आख़िरी दम तक लड़ते रहे. एक हीरो की तरह उनको याद किया गया. हम सभी जानते हैं कि नायकों को लेकर सबकी अपनी-अपनी यादें होती हैं.
दिक़्क़त यहां है कि महाराणा प्रताप को जो पोशाक पहनाई जा रही है कि उन्होंने भारत की सुरक्षा में विदेशियों से टक्कर ली और वो एक राष्ट्रीय हीरो थे, जिसने राष्ट्र की गरिमा के लिए लड़ाइयां लड़ीं, ये सच नहीं है. देश की कल्पना न केवल भारत में बल्कि संसार भर में 18वीं और 19वीं शताब्दी में आई है.
अंग्रेज़ी में देश को कंट्री कहते हैं लेकिन कंट्री क्या देश को कहा जाता था? कंट्री तो गांव को कहा जाता है. जो लंदन में बड़े-बड़े लोग रहते हैं उनके लिए कंट्री हाउस होता है. कंट्री का मतलब देश नहीं है. यह केवल अंग्रेज़ी में ही नहीं बल्कि फ्रेंच में भी ऐसा ही है. फ्रेंच में पेई कंट्री को कहते हैं और पेंजा किसान को कहते हैं.
देश की परिकल्पना
देश का मतलब हमारे यहां भी गांव हैं इसीलिए हम कहते हैं कि परदेस जा रहे हैं. आप पटना से कोलकाता चले गए तो परदेस चले गए. परदेस को लेकर कितनी कविताएं और लोककथाएं मौजूद हैं. देश का मतलब होता है कि जहां आप पैदा हुए हैं. देश और उसके बरक्स जो विदेश की परिकल्पना है ये 18वीं और 19वीं सदी की है. 16वीं सदी में देश, विदेश और विदेशी जैसी परिकल्पना कहीं नहीं थी. और राष्ट्र का तो बिल्कुल सवाल ही नहीं था.
ये सारी परिकल्पाएं बाद की हैं और इनका अपना महत्व है. समस्या तब होती है जब आप जब 19वीं सदी की परिकल्पना को 16वीं सदी में बैठा दें तो वैसे ही होगा जैसे हम मान लें कि हल्दी घाटी की लड़ाई में अकबर की फ़ौजें फाइटर प्लेन में बैठकर गई थीं. कोई ऐसा करने की ज़िद करे तो हम इसे बेवकूफी ही कहेंगे.
लेकिन उनको इस बेवकूफी से फ़ायदा हो रहा है और ये बेवकूफी उनकी ज़रूरत है. बीजेपी की वोट बैंक की राजनीति का राजस्थान बेहतरीन उदाहरण है. इतिहास को तोड़-मरोड़ कर लिखवाना केवल राइट विंग को ही रास नहीं आता है, बल्कि सोवियत रूस में ऐसा काम कम्युनिस्टों ने भी किया था.
इतिहास का कॉम्युनिस्ट नज़रिया
सोवियत रूस में जो इतिहास लिखा गया था वो इतना उटपटांग था कि इन्होंने भी जबर्दस्ती एक किस्म की राष्ट्रवादी परिकल्पना डाल दी थी. ऐसी छेड़छाड़ किसी भी तरफ़ से संभव है. हमारे में देश में राइट विंग यह काम इसलिए कर रहा है क्योंकि इसकी बुनियाद स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान ही बन गई थी.
कांग्रेस में हिन्दू और मुस्लिमों के अलग-अलग गुट बनने लगे थे. एक समुदाय के बरक्स दूसके समुदाय के रूप में सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद को जो स्वरूप दिया गया वह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का एक चरित्र था. इसकी छाया इतिहास पर भी पड़ी. ऐसे में जो इतिहास पढ़ा जाता था वो हिन्दू बनाम मुस्लिम होता था. इसे धार्मिक इकाइयों में ही देखा जाता था. 1950 से 1970 के बीच इतिहास लेखन का रूप बदला. ये हिंदू बनाम मुस्लिम को छोड़कर नए वर्ग संघर्ष के रूप में आया जिसे मार्क्सवादी इतिहासकारों ने आगे बढ़ाया.
ये इतिहासकार संख्या में बहुत ज़्यादा नहीं थे. सबसे पहले डीडी कौशांबी, इरफ़ान हबीब, आरएस शर्मा और एआर देसाई जैसे इतिहासकरों ने लेखन को नई करवट दी. इन्होंने इतिहास लेखन का रुख बदल दिया. जहां धार्मिक इकाइयां थीं, वहां इन्होंने वर्ग संघर्ष को स्थापित किया. इससे इतिहास लेखन की प्रक्रिया पूरी तरह से बदल गई. 1980 के मध्य आते-आते ये इकाइयां भी कमज़ोर पड़ने लगीं. एक तो मार्क्सवाद की अपनी भी कमज़ोरियां थीं. नए-नए विषय उभरकर सामने आए जिनकी व्याख्या मार्क्सवाद के पास नहीं थी.
इतिहास लेखन का रुख
जैसे भावनाओं का इतिहास, व्यक्तियों के परस्पर संबंधों का इतिहास, हैबिटाट का इतिहास, पर्यावरण का इतिहास और जेंडर का इतिहास. ऐसे कई विषय आने लगे थे. ऐसे में इतिहास लेखन फिर से घिरा. 1985 आते-आते स्थिति बिल्कुल बदल चुकी थी. यह लेखन हिन्दू-मुस्लिम इकाइयों से बहुत दूर जा चुका था.
एक बदकिस्मती है कि राइट विंग इतिहासकार कोई है नहीं. पहले थे और बहुत अच्छे इतिहासकार थे. इनमें आरसी मजूमदार सबसे बड़ा नाम है. राधाकृष्ण मुखर्जी लखनऊ में थे. इन लोगों ने इतिहास को बिल्कुल हिंदू परिदृश्य में देखा. फिर भी ये बहुत योग्य इतिहासकार थे. उनसे बहस करने में मज़ा आता था. मैं तो उस वक़्त छोटा था इसलिए बहस नहीं कर पाता था लेकिन आरएस शर्मा और इरफ़ान हबीब बहुत तीखी बहस करते थे. आज तो कोई है ही नहीं जिसके साथ बहस की जा सके.
अब इतिहास के मुद्दे बदल चुके हैं. अब फिर से लोग हिंदू बनाम मुस्लिम इतिहास लिखना चाहते हैं जिसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है. लेकिन ये फिर से वहीं वापस जाना चाहते हैं. दरअसल, जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को तीन खांचों में बांटा था. मिल साहब ने ही हमें सिखाया कि भारतीय इतिहास का एक हिंदू काल है, मुस्लिम काल है और ब्रिटिश काल है.
हिन्दू और मुस्लिम इतिहास का सच
लेकिन जेम्स मिल के चश्मे वाले इतिहास को भारतीय इतिहासकारों ने बहुत पीछे छोड़ दिया है. उनको इतिहास इसलिए पसंद नहीं है क्योंकि वो उसमें हिंदू बनाम मुस्लिम की गोटी बैठा नहीं पाते हैं. महाराणा प्रताप का ही उदाहरण लीजिए. ज़ाहिर है वो अपनी फ़ौज के नेता थे लेकिन उनके बाद उनके सबसे बड़े सिपहसालार हाक़िम ख़ान थे, जो कि मुसलमान थे.
अकबर की ओर से राजा मान सिंह थे जो कि हिंदू थे. ऐसे में हम उसे हिंदू बनाम मुसलमान कैसे कर सकते हैं? उस ज़माने में हिंदू बनाम मुस्लिम जैसी कोई बात ही नहीं थी. आप देख रहे हैं कि महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा साथी मुसलमान है और दूसरी ओर हिंदू राजा मान सिंह उनसे लड़ाई लड़ रहे हैं तो आप इसे हिंदू बनाम मुस्लिम कैसे साबित कर देंगे? उस ज़माने में ऐसा नहीं किया गया था.
महाराणा प्रताप उस वक़्त हीरो की तरह थे और वो प्रसिद्ध भी हुए. लोकगीतों और लोकगाथाओं में महाराणा प्रताप की लोकप्रियता काफ़ी है. लेकिन एक हिंदू राष्ट्रवादी ने अपने राष्ट्र की रक्षा करने के लिए एक विदेशी से लड़ाई की, ये परिकल्पना तो थी ही नहीं और इसकी कोई प्रासंगिकता भी नहीं है. ऐसे में उनकी समस्या यह है कि अगर तथ्य उनके साथ नहीं जाते तो तथ्यों को मरोड़ दो और कह दो कि हल्दी घाटी में महाराणा प्रताप जीते थे. बच्चों का क्या, वो तो मान ही लेंगे.
ऐतिहासिक तथ्यों से शर्मिंदगी
कई बार जनमानस में सच को छुपाने और फ़र्ज़ी गौरव को स्थापित करने के लिए सत्य को खंडित किया जाता है. ऐसा करना दोनों को अच्छा लगता है. लोग भी जिस जाति और मजहब से ताल्लुक रखते हैं उन्हें उनकी वीरता की कहानी ज़्यादा भाती है. उस वक़्त इसे एक हिंदू और मुसलमान की लड़ाई के रूप में नहीं देखा गया. वह लड़ाई एक बादशाह और एक वीर की तक़रार के रूप में देखी जाती थी.
जिसमें निडर योद्धा की वीरगाथाएं और बादशाह का अपना इतिहास है. मध्यकालीन भारत का एक दिलचस्प तथ्य यह है कि मुगल बादशाहों में या उसके पहले सल्तनतों से राजपूतों की 300 साल तक लड़ाइयां चलती रहीं. कोई किसी से हारा नहीं. जब मुगल आए तो उन्होंने राजपूतों को अपने साथ मिला लिया. अकबर के सबसे बड़े विश्वासपात्र राजा मान सिंह थे.
औरंगजेब के जमाने में जो सबसे ऊंचे मनसबदार थे वो महाराजा जसवंत सिंह और महाराजा जय सिंह थे. मराठे भी भरे हुए थे. उस ज़माने में इसे हिंदू बनाम मुस्लिम कभी नहीं देखा गया. मुगलों में और राजपूतों में लड़ाइयां हुई हैं, मुगलों में और सिखों में हुईं, मुगलों और मराठों में हुई, मुगलों और जाटों में हुई हैं. इन लड़ाइयों में ख़ून-ख़राबा हुआ लेकिन पूरे 550 सालों में जिसको जेम्स मिल ने मुस्लिम शासनकाल कहा था उसमें एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ था.
सेक्युलर स्टेट में ज़्यादा दंगे
पहला दंगा जो हुआ वो 1713-14 में अहमदाबाद में हुआ. यह दंगा होली और एक गाय की हत्या को लेकर हुआ था. औरंगजेब की मृत्यु 1707 में हो चुकी थी उसके 6-7 साल बाद दंगा हुआ. सोचिए, औरंगजेब के जमाने में भी कोई दंगा नहीं हुआ. पूरी 18वीं सदी में महज पांच दंगे हुए थे. मध्यकाल में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए यानी हिंदू मुसलमान एक दूसरे की गर्दन काटने को आतुर नहीं थे. आज तो हमारा राज्य धर्मनिरपेक्ष है लेकिन देखिए कितने दंगे हो रहे हैं.
मैं इस तथ्य का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि उस काल का चरित्र अलग था. 18वीं सदी की शुरुआत में जब मुगल साम्राज्य का पतन शुरू हुआ तो फिर पहचान के लिए गोलबंदी शुरू हुई. मुस्लिम पहचान शाह हबीबुल्लाह ने उभारना शुरू किया कि कट्टर मुसलमान बनना चाहिए. उसका मानना था कि हम जिसे कंपोजिट कल्चर कह रहे थे उसमें बह गए थे और हमें इसका शुद्धीकरण करना चाहिए.
पहचान का निर्माण जो शुरू हुआ वो 18वीं सदी में हुआ है और 19वीं सदी में उसको ख़ास तौर पर बल मिला है. उसके बाद देखा गया कि मुसलमानों की शक्ति का बिल्कुल ख़ात्मा हो चुका था. लेकिन मुसलमानों की शक्ति का ख़त्म होना कहना अतार्किक व्याख्या है. क्या मध्यकाल में शासक मुसलमान थे?
मतलब जो शासक थे वो मुसलमान थे लेकिन ये कहना कि मुस्लिम शासन था या मुस्लिम संप्रदाय का शासन था और हिन्दू संप्रदाय शासित था ये तो अपने आप में बड़ी उल्टी सी बात है. संप्रदाय शासक नहीं होता है. संप्रदाय के एक ऊपर का जो स्तर होता है वो शासक होता है. मुसलमान का पतन हुआ, मुसलमानों की तबाही हुई ये भी अपने आप में एक ग़लत व्याख्या है.
पहचान की राजनीति
लेकिन फिर भी ये पहचान बननी शुरू हो गई थी. 19वीं शताब्दी में और ख़ासकर के बीसवीं शताब्दी में जब स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू हुई तो उसमें तो जनभावना धर्म और इलाक़े से परे थी. अभी तक जो मुगलों के साथ जाटों, सिखों, राजपूतों और मराठों की युद्ध होते रहे थे वो एक राजनीतिक और मिलिटरी कॉन्फ्लिक्ट थे. कहने में तो अजीब लगता है लेकिन सच यही है कि सांप्रदायिकता का उदय लोकतंत्र का एक पहलू है. पहले जनता को राजनीति में शामिल नहीं किया जाता था लेकिन लोकतंत्र में जनता सीधे राजनीति में शामिल होने लगी.
अब तक शासक वर्ग हुआ करता था. जब जनता शामिल होती है तो उसमें वह तरह-तरह से शामिल होती है. उनको हिंदू बनाम मुस्लिम शामिल किया जाता है. उनको बंगाली बनाम मराठी शामिल किया जाता है. उनको ग़रीब बनाम अमीर शामिल किया जाता है. उनको हिन्दी बनाम तमिल शामिल किया जाता है. इसमें सबसे बड़ा था हिन्दू बनाम मुस्लिम. कांग्रेस का जो राष्ट्रवादी चरित्र था वो धार्मिक इकइयां ही थीं. मतलब फर्क यह था कि कांग्रेस के लिए हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई और मुस्लिम लीग के लिए दुश्मन. जब देश का लोकतांत्रीकरण शुरू हुआ उसी में ये सारी पहचानें उभरकर सामने आईं.
इसी पहचान के सहारे लोगों को लामबंद किया जाता है. मतलब इस समस्या का लंबा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है जो कि 19वीं और 20वीं शताब्दी में ये इकाइयां उभरकर आई हैं जिसका परिणाम हम आज देख रहे हैं, और अब यह लोकतंत्र का हिस्सा हो गया. नेहरू का ये विचार था कि आने वाले वक़्त में ये सारी चीज़ें ख़त्म हो जाएंगी लेकिन हुआ इसका उल्टा.
वोट बैंक की राजनीति
देश का पहला आम चुनाव भी धर्म, जाति और इलाक़े के आधार पर लड़ा गया. नेहरू मानते थे कि यह पिछड़ा हुआ समाज है, शिक्षा नहीं है, किसी ने वोट दिया नहीं है और आने वाले वक़्त में इनको थोड़ा-सा तजुर्बा हो जाएगा तो चीज़ें ठीक हो जाएंगी. नेहरू मानते थे कि जब कोई वोट देने जाता है तो एक व्यक्ति होता है न कि जाति और मजहब का प्रतिनिधि. वो मानते थे कि एक व्यक्ति धर्म, जाति और इलाक़े के दवाब से मुक्त हो जाएगा, मगर यह नहीं हुआ.
उसी वक़्त एक अजगर टर्म गढ़ा गया था. मतलब अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत. इन्हें जाति के नाम पर वोट बैंक बनाने की कोशिश की गई. यह मुलायम और लालू यादव के एम-वाई (मुस्लिम-यादव) फॉर्म्युले के आधार पर ही था. इन फॉर्म्युलों से लोगों को वोट भी मिले.
महाराणा प्रताप की महिमा का बखान वोट बैंक की गोलबंदी का ही हिस्सा है. वो एक राजा थे. उन्होंने आख़िरी सांस तक लड़ाई लड़ी. ये उनका महत्व है और इससे ज़्यादा उनका महत्व नहीं है. अक़बर के सम्राज्य में मेवाड़ बहुत छोटा इलाक़ा था. बाद में महाराणा प्रताप का बेटा जहांगीर का ख़ास बन गया. उनका भाई उनके ख़िलाफ़ लड़ रहा था. ऐतिहासिक तथ्य तो यही हैं. ऐसे में महाराणा प्रताप और उनके राज को कितना महत्व मिलना चाहिए? ऐसा भी नहीं है कि मेवाड़ को पाने के लिए अकबर को बहुत संघर्ष करना पड़ा. राणा प्रताप लड़ते रहे और बाक़ी राजपूत तमाशबीन रहे.
अक़बर का विशाल साम्राज्य
अक़बर ने ना सिर्फ़ एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की बल्कि एक नए ढंग के साम्राज्य की स्थापना की. इस साम्राज्य का चरित्र अलग था. 15 अगस्त 1947 से लेकर अब तक भारत का प्रधानमंत्री शाहजहां के लाल किले से भाषण क्यों देता है? आज़ादी का जश्न लाल किले से क्यों मनाया जाता है. आख़िर शाहजहां के लाल किले में क्या बात है. सुभाषचंद्र बोस ने भी कहा था कि हम तिरंगा लाल किले पर लहराएंगे. आख़िर लाल किले में ऐसी क्या ख़ूबी है कि वह प्रतीक बन चुका है. लाल किला उस राजकाज के चरित्र और संस्कृति का प्रतीक बन चुका है जिसे अकबर ने स्थापित किया था.
अकबर ने एक बार कहा था कि किसी भी धर्म का अपमान ईश्वर का अपमान होता है. उस साम्राज्य का चरित्र यह था इसीलिए उस चरित्र को लेकर आप लाल किले पर जाते हैं. मोदी जी भी इसी लाल किले पर जाते हैं. और मोदी जी तो बिना पीएम बने ही छत्तीसगढ़ में लाल किले की डमी पर भाषण दे चुके हैं.
ये महानता की कोई प्रतियोगिता नहीं है. इतिहास में ऐसी कोई प्रतियोगिता नहीं हुआ करती है. इतिहासकारों के लिए ये महत्वपूर्ण बात नहीं है. इतिहास को आपने इतना बाज़ारू बना दिया है कि अकबर महान था, तो वो महान क्यों नहीं. अब आप कहेंगे वो इतना नीच था तो दूसरा क्यों नहीं.
सोचिए कैसा वक़्त है कि एक विधायक कहता है कि महाराणा प्रताप ने हल्दी घाटी का युद्ध जीता था और प्रोफ़सर कहता है कि ठीक है जी संपादित कर दे रहा हूं. ये क्या हो रहा है? अक़बर ने जिस साम्राज्य का निर्माण किया उसका चरित्र आख़िर तक कायम रहा.
राजस्थान में राजपूतों से तादाद बहुत छोटी है. लेकिन राजपूताना का गर्व किसी भी राजस्थानी पर लाद दिया जाता है. हमारे जीवन में राजनीति इतनी धंस चुकी है कि हर चीज़ के वोट मिलने के नज़रिए से देखा जाता है. पद्मिनी को लेकर भी ऐसा ही हुआ जो मलिक मुहम्मद जायसी के साहित्य की किरदार के सिवा कुछ भी नहीं है.
पद्मिनी का इतिहास में कोई अस्तित्व नहीं है. उसी तरह जोधाबाई की बात है. इतिहास में जोधाबाई नाम की कोई महिला नहीं थी. जहांगीर की एक पत्नी जोधपुर से थी जिसे जोधबाई कहा जा सकता है. अकबर की पत्नी जोधाबाई बिल्कुल काल्पनिक है. जिसने जोधा अकबर बनाई उसने कई इतिहासकारों से पूछा और सबने मना किया कि वैसी कोई महिला नहीं थी लेकिन उन्होंने फ़िल्म बनाई.